९० का दशक दुनिया के लिए जितना महत्वपूर्ण रहा है उतना ही काशी हिंदु विश्वविद्यालय के लिए भी रहा है। इस दरमियान जितने बदलाव यहाँ के विद्यार्थी-अध्यापक -कर्मचारियों के संबंधों मे हुए हैं , १०-१५ साल पहले अनुमान भी लगाना मुश्किल था। एक अच्छे कहानी या उपन्यास के लिए यह एक बहुत अच्छा प्लॉट हो सकता है । पर दुःख की ही बात है की इससे सम्बंधित रचनाएँ अपवादस्वरुप ही देखने को मिली हैं। इन सब चीजों को ध्यान मे रखते हुए कथा लेखक राकेश मिश्रा अवश्य ही बधाई के पात्र हैं जिनकी दो कहानियां इधर बीच ज्ञानोदय पत्रिका मे प्रकाशित हुई हैं जिनकी कथाभूमि बी एच यू है। हालांकि इन कहानियो का मकसद इस विश्वविद्यालय मे हुए परिवर्तनों की पड़ताल करना हो , ऐसा नही लगता ।
राकेश जी की कहानियों का विषय वा भाषा शैली किसी भी पाठक को एकबारगी आकर्षित करने वाली है। ऐसा देखने मे आया है कि जो साहित्य के नियमित पाठक नही हैं वो भी इन कहानियों को मज़ा लेकर पढ़ते हैं । लेखक कहानियो के मध्य अपने पढे लिखे होने का एहसास भी कराता रहता है। दोनो कहानियो के बीच खास अंतराल नही होने पर भी विषय वस्तु में खास बदलाव नही है । ये नयी कहानी "सभ्यता समीक्षा " जो मई अंक मे छापी है कायदे से देखे तो इनमे भी वहीँ लौंडियाबाजी वाली चीजें है । फिर भी इन दो कहानियो से राकेश जी ने हिंदी ही नही , भारतीय ही नही , बल्कि विश्व(विद्यालय) स्तर के कथा लेखक के रुप मे स्वयं को स्थापित कर लिया है।
Friday, June 29, 2007
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