Sunday, August 30, 2009

प्रभाष जोशी का ब्राह्मणवादी विमर्श !

इन दिनों प्रभाष जोशी के का रविवार डॉट कॉम पर साक्षात्कार काफी विवादित रहा है ।उसके कुछ खास अंश है जिसे ब्राह्मणवादी विमर्श मन जा रहा है यहाँ दिया जा रहा है .

... क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है। क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है। तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारिरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं. सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते. ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए.
... अपने समाज में अलग-अलग कौशल के अलग-अलग लोग हैं. अपन ने ये माना कि राजकाज में राजपूत अच्छा राज चलाते है. क्यों माना हमने ? एक तो वो परंपरा से राज चलाते आ रहे है, दूसरा चीजों के लिए समझौते करना, सब को खुश रखना, इसकी जो समझदारी है, कौशल जो होती है, वो आपको राज चलाते-चलाते आती है. आप अगर अपने परिवार के मुखिया है तो आप जानते हैं कि आपके परिवार के लोगों को किस तरह से हैंडल किया जाये.

...अब धारण शक्ति उन लोगों में होती है, जो शुरू से जो धारण करने की प्रवृत्ति के कारण आगे बढ़ते है. अब आप देखो अपने समाज में, अपनी राजनीति में. अपने यहां सबसे अच्छे राजनेता कौन है ? आप देखोगे जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण, इंदिरा गांधी ब्राह्मण, अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण, नरसिंह राव ब्राह्मण, राजीव गांधी ब्राह्मण. क्यों ? क्योंकि सब चीजों को संभालकर चलाना है इसलिए ये समझौता वो समझौता वो सब कर सकते है. बेचारे अटल बिहारी बाजपेयी ने तो इतने समझौते किये कि उनके घुटनों को ऑपरेशन हुआ तो मैंने लिखा कि इतनी बार झुके है कि उनके घुटने खत्म हो गये, इसलिए ऑपेरशन करना पड़ा.
मुझे लगता है प्रभाष जी सही दिशा में सोच रहे हैं , कुछ तर्क और ब्योरे छुट रहे हैं .वैसे कुछ इसी तरह के लेख प्रगतिशील सोच वाली पत्रिकाओं व लेखकों में मिलेंगी. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं उदयप्रकाश की लम्बी कहानी "पीली छतरी वाली लड़की " के अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ ,जो उपर्युक्त अंश के पूरक भी हैं .

....वे अपने -अपने भविष्य के लिए आश्वस्त और बेफिक्र लड़के थे ।विभाग में चलने वाली राजनीति के वे ज्यसतर प्यादे थे । उनकी रूचि साहित्य या किताबों में कम और डिग्री ,नियुक्ति , प्रमोशन ,फेल्लोव्शिप आदि हथियाने के गुर सीखने में ज्यादा थी . वे बहुत तेजी से ये प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे .उनकी जैविक आनुवंशिकता में कुछ गुणसूत्र ऐसे थे ,जिससे वे यह विद्या उतनी ही सरलता से सीख रहे थे ,जितनी सर्ताता से गिलहरी पेड़ पर चढ़ना , मछली पानी में तैरना, पनडुब्बी गोते लगाना या मूस किसी दीवार में बिल बनालर घर में घुसना सीखता है. -- पेज ५१
..." इस देश के इतिहास में कोई भी जाति कभी स्थिर नहीं रही है ... लेकिन एक जाति ऐसी है, जिसने अपनी जगह स्टेटिक बनाये रखी है ।विल्कुल स्थिर ,सबसे ऊपर .हजारों सालों से ॥वह जाति है ब्राह्मण . शारीरिक श्रम से मुक्त, दूसरों के परिश्रम, बलिदान, और संघर्ष को भोगने वाली संस्कृति के दुर्लभ प्रतिनिधि. इस जाति ने अपने लिए श्रम से अवकाश का एक ऐसा स्वर्गलोक बनाया ,जिसमे शताब्दियों से रहते हुए इसने भाषा, अंधविश्वासों, षड्यंत्रों, संहिताओं और मिथ्या चेतना के ऐसे मायालोक को जन्म दिया ,जिसके जरिये वह अन्य जातियों की चेतना,उनके जीवन और इस तरह समूचे समाज पर शासन कर सके .
...एक निकम्मे , अकर्मण्य धड़ पर रखा हुआ एक बेहद सक्रिय, शातिर , षड्यंत्रकारी दिमाग, एक ऐसी खोपडी, जिसमे तुम सीधी-सादी कील भी ठोंक दो तो वह स्क्रू या स्प्रिंग बन जायेगी ।
.... they are the greatest and the deadliest power manipulators since centuries! सत्ता को कब्जियाने ,उसे अपने शिकंजे में कस लेनेवाली ऐसी मक्कार बाजीगर जाति समूचे इतिहास में और कहीं नहीं। A well organized nexus of power manipulatars .सम्पति और सत्ता के लिए यह जाति कुछ भी कर सकती है॥ यह इस देश का दुर्भाग्य ही है, की वे हमेशा कामयाब रहे, आज तक !" -पेज 123

Saturday, June 14, 2008

पहल -८६ ,सिला-विष्णु खरे

विष्णु खरे वर्तमान कवियों में मेरे पसंदीदा कवि हैं. उनकी कवितायेँ मुझे ऐसा लगता है कि समझ में आती हैं . इनकी पढ़ी लगभग सभी कवितायेँ मुझे प्रभावित करती हैं .पहल ८६ में छपी कवितायेँ इसका उदाहरण हैं.उनमे से एक है जो छपते-छापते छपी है.इस कविता का शीर्षक “सिला “ है.इसी कविता की वजह से मुझे ये सब लिखने पर मजबूर होना पड़ा है.मुझे अपनी ही समझ पर संदेह होने लगा है.ये कविता आधुनिक राजनीति के एक “महापुरुष“, “विद्रोही ” अर्जुन सिंह पर केन्द्रित है.मुझे नहीं पता कि अर्जुन सिंह के आर्थिक विचार क्या हैं?ग्लोबलाइजेशन के विषय में क्या विचार है?नंदीग्राम ,सिंगुर पर उनके विचार क्या हैं ?तसलीमा नसरीन को बंगाल से भगाने वाले धर्मनिरपेक्ष ताकतों के विषय में उनके क्या विचार हैं ? ये जानने की शायद जरुरत भी नहीं क्योंकि RSS ,,बीजेपी को चुनौती देते रह कर गंगा जो नहाते रहे हैं.मैंने कई बार इस कविता को पढा कि शायद जो लिख रहा हूँ उसे लिखने की जरुरत महसूस न हो ,मेरे समझ में ही कोई खोट हो जो इतने बड़े महापुरुष को पहचान नहीं पाया .कविता नीचे दी हुई है।

सिला -विष्णु खरे
क्या नहीं था तुम्हारे पास
अच्छी शिक्षा –दीक्षा उम्दा बुद्धि बढ़िया वक्तृत्व
शक्ति पचास वर्षों का राजनीतिक अनुभव अनेक उतार -चढाव
युवा प्रांतीय उप-मंत्री से शुरू कर
मुख्यमन्त्री फिर केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक कई बार पहुंचना
बीच में पंजाब
गाँधी -नेहरू के मूल्यों में आस्था
सबसे बड़ी बात इंदिरा संजय राजीव सहित
अब सोनिया राहुल और प्रियंका परिवार तक का अकुंठ समर्थन
राजीव गाँधी की हत्या और बाबरी मस्जिद ध्वंस को लेकर एक मात्र इस्तीफा

लेकिन सोनिया गाँधी ने बनाया मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री
तुम्हे नहीं अर्जुन सिंह

अपने इसी झुनझुने में मगन रहो चुरहट के राजकुंवर
कि तुम्हे शिक्षा और बच्चों को मुक्त करना है नफ़रतों के जहर से
देते रहो चुनौती राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ
विहिप शिवसेना भाजपा बजरंगियों को

जुटे रहो चाणक्य की तरह काँटों के उन्मूलन में
तुम उस मुल्क की राजनीति में हो जिसमे
हर आदमी औरत के हाथ कमोवेश काले हैं
फिर भी पियो गरल बदनामी का सही आरोप
महत्वाकांक्षी चतुर चालक ठाकुर होने के
फिर तुम्हारे ही लोग तुम्हे दोष दें तुम्हे ने मुसीबतें खडी करने का
ताज़ा अफवाह राष्ट्रपति बनने की कोशिश का
पता नहीं तुम कब सीखोगे
क्या पडी थी तुम्हे नरसिंह राव का विरोध करने की
क्यों बने बागी
मैंने देखा है तुम्हारा वह आत्मनिर्वासन और अकेलापन
देखते नहीं लोग नापसंद करते हैं दरअसल विद्रोहियों को
उन्हें भी जो खुद विरोधियों की मुखालिफत करते हों
क्या अब भी नहीं जानते अपने तज्रिबे से
कि अपने बीच के जिद्दी आदमियों से
अपनों को भी असुविधा हो जाती है
उन्हें व्यापक दुनियादारी से बोलनेवाले
आज्ञाकारी पालतू ही भरोसेमंद लगते हैं किसी भी पाले में हों
जो हर एक के लिए हर मौसम में मुफीद होते हैं
जिनसे कोई काल्पनिक खतरे तक कभी नहीं होते
अपनी त्रासदी पहचानों अर्जुन सिंह
सिर्फ वफादारी काफी नहीं
पूरी तरह से मौन बिछना पड़ता है
तुम कहते हो तुम किसी के आदमी नहीं हो
तभी किसी सिकंदर की सिफारिश पर तुम नहीं रखे गये
कुछ मूल्यों के प्रति तुम्हारे समर्पण से
चौतरफा आतंक पैदा होता है
वक़्त आ चूका है कि तुम पुस्तकों संस्थाओं और देश के
शुद्धिकरण का यह खब्त छोडो
अपनाओं सौम्य सवर्ण हिंदुत्व को
जाने दो यह सामाजिक पुनर्निर्माण का स्वप्न
जिसे द्विजों पिछडों अन्य पिछडों और दुसरे अभागों की
विक्षिप्त परस्पर महत्वाकांक्षी घृणा कभी भी
जलती हुई चीजों और लाशों में बदल देती है
सब लोग राष्ट्रव्यापी रहत की सांस लेंगे
कांग्रेसी सबसे ज्यादा
और क्या पता
कभी मान लो सोनिया जी की किसी अंतरिम विकल्प की तलाश हुई
तो शायद अगली दफा उनकी निगाह पिछले कतार में खडे तुम पर पड़े
वर्ना नमरुदों की इस खुदाई में
तुम्हारी तरह की बंदगी से तुम जैसों का तो भला होने से रहा

Saturday, July 14, 2007

हाय अमेरिका !

अमेरिका मे विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहा है , हिंदी के दिग्गज लोग गये ही नही ये देख कर मन बड़ा ही दुःखी है । अमेरिका जाने का सुनहरा मौका था, कौन रोज रोज जाने को मिलता है। अपने खर्चे से जाना मुश्किल ही है ,कोई बेटा- बेटी बस गए हो तो बात ही अलग है। नामवर जी, राजेंद्र यादव व मंगलेश जी आदि कई लोग नही गए , इसका बड़ा कष्ट है ।

अब बताइए राजेंद्र जी क्यों नही गए ,एक अच्छा मौका था वहाँ जा कर अपने विचारों को प्रस्तुत करने का , कुछ वर्ष अरुंधती राय गई थी अपने धांसू भाषण से अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी, क्या राजेंद्र जी वहीँ काम और जोरदार तरीके से नही कर सकते थे ? इसे अमेरिका वालों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि राजेंद्र जी वहाँ नही गए , अमेरिका साम्राज्यवादी देश है इसलिये उसे नरेन्द्र मोदी के खाते में डाल दिया जाय ये तो अमेरिका के लोगों के साथ बड़ा ही अन्याय है। ये कोई बात नही हुई कि मार्क्सवादी हैं इसलिये अमेरिका नही नही जायेंगे । अरे गए रहते घूम घाम कर आये रहते कोई बोलता तो भारतीयों की परम्परा का उदहारण दे देते जो कि एक खोजने पर हजार मिलेंगी । ये भी कह सकते थे कि घृणा पाप से करना चाहिऐ ना कि पापी से ,गाँधी जी ने कहा है, मार्क्स ने भी कोई क़सम तो खिलाई नही है। एतिहासिक मौका चुक गए गुरू लोग।

नामवर जी भी नही गए । मुरारी बापू के चैनल पर मीरा बाई पर प्रवचन देने गए थे तो कुछ उम्मीद जगी थी कि मार्क्सवाद की शायद भारतीय संदर्भों मे नयी व्याख्या सुनने को मिले ,सौभाग्य से उसी समय पंत और कूडा वाला मामला कोर्ट मे चला गया जिससे देश के ऊपर (खासकर बनारस) फासीवाद का खतरा दिखने लगा था तो मुझे कुछ उम्मीद हुई कि नामवर जी की वैचारिक अगुवाई मे कोई क्रान्ति जैसी चीज होने वाली है , मगर अब तो उम्मीदें झुरा गयीं । अगर नामवर जी अमेरिका जाते तो अवश्य ही कोई जोरदार स्थापना देते , राजेंद्र जी तड़ से उसे काटते , फिर सारे अमेरिका ,और पुरेविश्व मे एक नयी बहस छिड़ जाती। लेकिन अब इन सब बातों पर अफ़सोस ही किया जा सकता है . ज्योति बाबु ने पी एम् ना बन कर जो गलती की, मुझे लगता है कि नामवर जी ने भी वैसी ही गलती की है ।

मंगलेश जी का तो फिर भी कुछ समझ मे आता है बेचारे सुब्रत राय के यहाँ " सहारा समय" मे नौकरी करते थे तभी ग्लानिबोध होता था , छाती पर पत्थर रख कर काम करते थे ( हालांकि नामवर जी भी वहीँ थे )। उससे मुक्ति मिली ही थी, अमेरिका जाना रिस्की था । अमेरिका जाने पर संभव था कोई कविता या कई कवितायेँ लिख देते , हो सकता है इन कविताओं का संग्रह "एक बार अमेरिका " प्रकाशित हो जाता फिर तो प्रगतिशील मित्र इसे सनद की तरह रखते और हमेशा कोंचते कि आप तो अमेरिका गये थे . सो उन्होने ठीक ही किया होगा .

लेकिन इस त्याग से इन लोगों को फायदा (सॉरी ) क्या होगा ? नामवर जी अब आशाराम बापू या बाबा रामदेव के यहाँ जायेंगे तो ऐसा थोड़े ही होगा की पंकज विष्ट " समयांतर " मे इसकी रिपोर्ट नही छापेंगे , कौशल गुरू भले ही अपना मुकदमा वापस ले लें ।

Friday, June 29, 2007

ज्ञानोदय-४

९० का दशक दुनिया के लिए जितना महत्वपूर्ण रहा है उतना ही काशी हिंदु विश्वविद्यालय के लिए भी रहा है। इस दरमियान जितने बदलाव यहाँ के विद्यार्थी-अध्यापक -कर्मचारियों के संबंधों मे हुए हैं , १०-१५ साल पहले अनुमान भी लगाना मुश्किल था। एक अच्छे कहानी या उपन्यास के लिए यह एक बहुत अच्छा प्लॉट हो सकता है । पर दुःख की ही बात है की इससे सम्बंधित रचनाएँ अपवादस्वरुप ही देखने को मिली हैं। इन सब चीजों को ध्यान मे रखते हुए कथा लेखक राकेश मिश्रा अवश्य ही बधाई के पात्र हैं जिनकी दो कहानियां इधर बीच ज्ञानोदय पत्रिका मे प्रकाशित हुई हैं जिनकी कथाभूमि बी एच यू है। हालांकि इन कहानियो का मकसद इस विश्वविद्यालय मे हुए परिवर्तनों की पड़ताल करना हो , ऐसा नही लगता ।

राकेश जी की कहानियों का विषय वा भाषा शैली किसी भी पाठक को एकबारगी आकर्षित करने वाली है। ऐसा देखने मे आया है कि जो साहित्य के नियमित पाठक नही हैं वो भी इन कहानियों को मज़ा लेकर पढ़ते हैं । लेखक कहानियो के मध्य अपने पढे लिखे होने का एहसास भी कराता रहता है। दोनो कहानियो के बीच खास अंतराल नही होने पर भी विषय वस्तु में खास बदलाव नही है । ये नयी कहानी "सभ्यता समीक्षा " जो मई अंक मे छापी है कायदे से देखे तो इनमे भी वहीँ लौंडियाबाजी वाली चीजें है । फिर भी इन दो कहानियो से राकेश जी ने हिंदी ही नही , भारतीय ही नही , बल्कि विश्व(विद्यालय) स्तर के कथा लेखक के रुप मे स्वयं को स्थापित कर लिया है।

Thursday, June 14, 2007

ज्ञानोदय-3

शहादत और अतिक्रमण- वंदना राग

अक्सर राजेंद्र यादव की यह शिक़ायत रहती है कि ४७ के विभाजन पर हिंदी साहित्य में (उल्लेखनीय) रचनाएं कम लिखी गई हैं। आज ये स्थिति नही है , उदहारण के लिए कारगिल युद्ध को ही लीजिये ८-९ साल हुए कई कहानियाँ लिखी जा चुकी ,अभी लिखी भी जा रही हैं।शहादत और अतिक्रमण भी करगिल युद्ध कि पृष्ठभूमि पर लिखी एक कहानी है जो हंस मे नही छपी है ।

कहानी मे एक लांस नायक (ठाकुर) अजय प्रताप सिंह हैं उनकी पत्नी मुन्नी (हमेशा सिंह सहित) हैं नायक के माता पिता हैं ये सब लोग गावं मे रहते हैं ,एक कोई सोनाने (नीच जति का यानी लगभग दलित)है जिसकी आँखों मे मुन्नी के लिए इज्जत के अलावा सब कुछ तैरता रहता है । और हाँ नायक के एक भाई-बहन भी हैं।भाई जिसके पढने मे खर्चा हो रहा है, अविवाहित बहन जिसके लिए दहेज़ जुटाया जा रह है । इनकी प्रविष्टि कहानी मे सिर्फ एक बार हुई है फिर ये नही आये हैं जब भाई शहीद हुआ तब भी , एस पी , डी एम् ,विधायक सभी आ गए हैं मगर भाई बहन नही आये हैं ,खैर कहानी मे उनकी जरुरत भी नही है ।
तो कहानी मे स्त्री(+ देह) विमर्श भी ,दलित विमर्श भी आ गया है ,भाषा शैली अच्छी है ही। एक क्रन्तिकारी (सुपर हिट) कहानी के जो जरुरी था , शहीद की विधवा सोनाने के साथ भाग जाती है .

Sunday, June 10, 2007

हंस-जून

इस बार के हंस में राजेंद्र-मन्नू जी कि पुत्री रचना यादव का एक लेख प्रकाशित हुआ है .ये लेख हंस मई अंक में रोहिणी अग्रवाल द्वारा मन्नू भंडारी के संस्मरण "एक कहानी यह भी " की समीक्षा की वजह से वाध्य होके लिखा गया है। पढ़ के ये अनुमान लगाया जा सकता है कि किस मनः स्थिति मे इस लिखा गया है . यह एक बहुत ही संतुलित लेख है ,लेखिका की दृष्टि एक पुत्री की वजाय एक आलोचक की रही है ,मैं इस लेख से सौ फीसदी सहमत हूँ .रोहिणी अग्रवाल की समीक्षा का लगभग संचिप्त रूप मृणाल पण्डे द्वारा हिंदुस्तान मे प्रकाशित हुआ है । जिसे पढ़ के शंका उठती है की क्या समीक्षिका द्वारा किटाब को पढा भी गया है या नही। हिंदी साहित्य की घटिया राजनीति का यह एक ज्वलंत उदहारण है।


इस बार की कहानियो में तरसेम गुजराल की कहानी इंट-बजरी पठनीय है .

ज्ञानोदय-2

ज्ञानोदय मई अंक मे छपी संपादकीय और विजय मोहन सिंह की ८०-९० दशक की कहानी पर टिप्पणी उनके पूर्वाग्रह को प्रकट करती है .जाहिर है वे संकेतो से कुछ खास लेखकों (जैसे उदय प्रकाश ) पर निशाना साध रहे हैं . इस तरह की चीजें किसी भी सार्थक बहस की संभावना को समाप्त कर देती हैं । विजय कुमार का समकालीन कविता पर लेख और उसके बाद की बहस स्पोंसर्ड ही लग रही है . कोई खास नयी चीज इससे निकल कर आयेगी ऐसा नही लगता । फिर भी इस बहस मे विजयजी (अपने तकनीकी कौशल से) ही हावी रहे हैं। हालांकि जून अंक मे किसी लेखक का ये उद्वरण बहुत सही है

चिरैया क जान गईल खवैया को स्वाद नही

ज्ञानोदय -मई ,२००७ -१

हिंदी साहित्य मे कई विषय ऐसे हैं जिन पर मुझे लगता है की अपेक्षाकृत कम लेखन हुआ है . चंदन पाण्डेय की कहानी 'सिटी पब्लिक स्कूल ऐसे ही विषय को उठाती है ।
कहानी लंबी होने की पर्याप्त गुंजाईश थी , पर जो भाषा -शैली है उस हिसाब से ठीक ही है (इसका मतलब की इस विषय पर एक कम्प्लीट कहानी शेष है ).कहानी की जो भाषा है कुछ विचार करने पर मजबूर करती है , जैसे कि क्या आने वाला समय इसी तरह कि कहानियों का होगा , कि इस तरह की भाषा से हिंदी साहित्य से नए पाठक जुडेंगे या कुछ पाठक छिटक जायेंगे .जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे कहानी का विषय पसंद आया , भाषा भी विषय -वस्तु के हिसाब से ठीक लगी .फिर भी मैं उम्मीद करता हूँ कि इस तरह की कहानी लेखक की रचनाओं मे अपवाद स्वरूप ही रहेंगी अन्यथा मैं इस तरह की कोई कहानी हिंदी की वजाय इंग्लिश मे लिखी हो तो उसे पढना पसंद करुंगा , मेरा ख़याल है कि कहानी मे जहाँ ज्यादा जरूरत हो संवाद इंग्लिश में लिखे जा सकते हैं .

Saturday, May 19, 2007

हिंदी साहित्य में कुडा

कुछ दिनों पूर्व काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महादेवी वर्मा पर आयोजित एक गोष्ठी मे ,हिंदी साहित्य के आलोचक नंबर १ डाक्टर नामवर सिंह जी ने यह कह कर कि "पंत का चौथाई से ज्यादा काव्य कुडा है " यहाँ के साहित्यिक परिवेश में हलचल मचा दी .एक छुटभैये विद्धान ने यह कह कर बहस को आगे बढाया की " कूडा तो तुलसी के यहाँ भी है '.इन परिस्थितियों मे हिंदी साहित्य के शोधेच्छुओं को शोध के कुछ विषय सुझाना चाहता हूँ :


हिंदी साहित्य में कूडा , प्रगतिशील साहित्य में कूडा , दलित साहित्य में कूडा , हंस पत्रिका में कूडा , हिंदी आलोचना में कूडा इत्यादि

थोडा और आगे बढ़ें तो प्रेमचंद के साहित्य में कूडा , रेणु के साहित्य में कूडा इत्यादि

अन्य भाषाओं में
बांग्ला साहित्य में कूडा , रविन्द्र साहित्य में कूडा , मराठी साहित्य में कूडा इत्यादि


थोडा ज्यादा पीछे चलें तो
कालिदास के साहित्य में कूडा , वाल्मीकि रामायण में कूडा , व्यास रचित महाभारत में कूडा इत्यादि

थोडा और ग्लोबल हो तो
शेक्सपियर के साहित्य मे कूडा ,तोल्स्तोय के साहित्य में कूडा , गोर्की के साहित्य मे कूडा ....


और अंत में

कूडा जो बीनन मैं चला कूडा ना मिल्या कोय

ब्लाग जो लिक्खा आपना पुरा कूडा होय ।