Thursday, June 14, 2007

ज्ञानोदय-3

शहादत और अतिक्रमण- वंदना राग

अक्सर राजेंद्र यादव की यह शिक़ायत रहती है कि ४७ के विभाजन पर हिंदी साहित्य में (उल्लेखनीय) रचनाएं कम लिखी गई हैं। आज ये स्थिति नही है , उदहारण के लिए कारगिल युद्ध को ही लीजिये ८-९ साल हुए कई कहानियाँ लिखी जा चुकी ,अभी लिखी भी जा रही हैं।शहादत और अतिक्रमण भी करगिल युद्ध कि पृष्ठभूमि पर लिखी एक कहानी है जो हंस मे नही छपी है ।

कहानी मे एक लांस नायक (ठाकुर) अजय प्रताप सिंह हैं उनकी पत्नी मुन्नी (हमेशा सिंह सहित) हैं नायक के माता पिता हैं ये सब लोग गावं मे रहते हैं ,एक कोई सोनाने (नीच जति का यानी लगभग दलित)है जिसकी आँखों मे मुन्नी के लिए इज्जत के अलावा सब कुछ तैरता रहता है । और हाँ नायक के एक भाई-बहन भी हैं।भाई जिसके पढने मे खर्चा हो रहा है, अविवाहित बहन जिसके लिए दहेज़ जुटाया जा रह है । इनकी प्रविष्टि कहानी मे सिर्फ एक बार हुई है फिर ये नही आये हैं जब भाई शहीद हुआ तब भी , एस पी , डी एम् ,विधायक सभी आ गए हैं मगर भाई बहन नही आये हैं ,खैर कहानी मे उनकी जरुरत भी नही है ।
तो कहानी मे स्त्री(+ देह) विमर्श भी ,दलित विमर्श भी आ गया है ,भाषा शैली अच्छी है ही। एक क्रन्तिकारी (सुपर हिट) कहानी के जो जरुरी था , शहीद की विधवा सोनाने के साथ भाग जाती है .

Sunday, June 10, 2007

हंस-जून

इस बार के हंस में राजेंद्र-मन्नू जी कि पुत्री रचना यादव का एक लेख प्रकाशित हुआ है .ये लेख हंस मई अंक में रोहिणी अग्रवाल द्वारा मन्नू भंडारी के संस्मरण "एक कहानी यह भी " की समीक्षा की वजह से वाध्य होके लिखा गया है। पढ़ के ये अनुमान लगाया जा सकता है कि किस मनः स्थिति मे इस लिखा गया है . यह एक बहुत ही संतुलित लेख है ,लेखिका की दृष्टि एक पुत्री की वजाय एक आलोचक की रही है ,मैं इस लेख से सौ फीसदी सहमत हूँ .रोहिणी अग्रवाल की समीक्षा का लगभग संचिप्त रूप मृणाल पण्डे द्वारा हिंदुस्तान मे प्रकाशित हुआ है । जिसे पढ़ के शंका उठती है की क्या समीक्षिका द्वारा किटाब को पढा भी गया है या नही। हिंदी साहित्य की घटिया राजनीति का यह एक ज्वलंत उदहारण है।


इस बार की कहानियो में तरसेम गुजराल की कहानी इंट-बजरी पठनीय है .

ज्ञानोदय-2

ज्ञानोदय मई अंक मे छपी संपादकीय और विजय मोहन सिंह की ८०-९० दशक की कहानी पर टिप्पणी उनके पूर्वाग्रह को प्रकट करती है .जाहिर है वे संकेतो से कुछ खास लेखकों (जैसे उदय प्रकाश ) पर निशाना साध रहे हैं . इस तरह की चीजें किसी भी सार्थक बहस की संभावना को समाप्त कर देती हैं । विजय कुमार का समकालीन कविता पर लेख और उसके बाद की बहस स्पोंसर्ड ही लग रही है . कोई खास नयी चीज इससे निकल कर आयेगी ऐसा नही लगता । फिर भी इस बहस मे विजयजी (अपने तकनीकी कौशल से) ही हावी रहे हैं। हालांकि जून अंक मे किसी लेखक का ये उद्वरण बहुत सही है

चिरैया क जान गईल खवैया को स्वाद नही

ज्ञानोदय -मई ,२००७ -१

हिंदी साहित्य मे कई विषय ऐसे हैं जिन पर मुझे लगता है की अपेक्षाकृत कम लेखन हुआ है . चंदन पाण्डेय की कहानी 'सिटी पब्लिक स्कूल ऐसे ही विषय को उठाती है ।
कहानी लंबी होने की पर्याप्त गुंजाईश थी , पर जो भाषा -शैली है उस हिसाब से ठीक ही है (इसका मतलब की इस विषय पर एक कम्प्लीट कहानी शेष है ).कहानी की जो भाषा है कुछ विचार करने पर मजबूर करती है , जैसे कि क्या आने वाला समय इसी तरह कि कहानियों का होगा , कि इस तरह की भाषा से हिंदी साहित्य से नए पाठक जुडेंगे या कुछ पाठक छिटक जायेंगे .जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे कहानी का विषय पसंद आया , भाषा भी विषय -वस्तु के हिसाब से ठीक लगी .फिर भी मैं उम्मीद करता हूँ कि इस तरह की कहानी लेखक की रचनाओं मे अपवाद स्वरूप ही रहेंगी अन्यथा मैं इस तरह की कोई कहानी हिंदी की वजाय इंग्लिश मे लिखी हो तो उसे पढना पसंद करुंगा , मेरा ख़याल है कि कहानी मे जहाँ ज्यादा जरूरत हो संवाद इंग्लिश में लिखे जा सकते हैं .