Saturday, June 14, 2008

पहल -८६ ,सिला-विष्णु खरे

विष्णु खरे वर्तमान कवियों में मेरे पसंदीदा कवि हैं. उनकी कवितायेँ मुझे ऐसा लगता है कि समझ में आती हैं . इनकी पढ़ी लगभग सभी कवितायेँ मुझे प्रभावित करती हैं .पहल ८६ में छपी कवितायेँ इसका उदाहरण हैं.उनमे से एक है जो छपते-छापते छपी है.इस कविता का शीर्षक “सिला “ है.इसी कविता की वजह से मुझे ये सब लिखने पर मजबूर होना पड़ा है.मुझे अपनी ही समझ पर संदेह होने लगा है.ये कविता आधुनिक राजनीति के एक “महापुरुष“, “विद्रोही ” अर्जुन सिंह पर केन्द्रित है.मुझे नहीं पता कि अर्जुन सिंह के आर्थिक विचार क्या हैं?ग्लोबलाइजेशन के विषय में क्या विचार है?नंदीग्राम ,सिंगुर पर उनके विचार क्या हैं ?तसलीमा नसरीन को बंगाल से भगाने वाले धर्मनिरपेक्ष ताकतों के विषय में उनके क्या विचार हैं ? ये जानने की शायद जरुरत भी नहीं क्योंकि RSS ,,बीजेपी को चुनौती देते रह कर गंगा जो नहाते रहे हैं.मैंने कई बार इस कविता को पढा कि शायद जो लिख रहा हूँ उसे लिखने की जरुरत महसूस न हो ,मेरे समझ में ही कोई खोट हो जो इतने बड़े महापुरुष को पहचान नहीं पाया .कविता नीचे दी हुई है।

सिला -विष्णु खरे
क्या नहीं था तुम्हारे पास
अच्छी शिक्षा –दीक्षा उम्दा बुद्धि बढ़िया वक्तृत्व
शक्ति पचास वर्षों का राजनीतिक अनुभव अनेक उतार -चढाव
युवा प्रांतीय उप-मंत्री से शुरू कर
मुख्यमन्त्री फिर केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक कई बार पहुंचना
बीच में पंजाब
गाँधी -नेहरू के मूल्यों में आस्था
सबसे बड़ी बात इंदिरा संजय राजीव सहित
अब सोनिया राहुल और प्रियंका परिवार तक का अकुंठ समर्थन
राजीव गाँधी की हत्या और बाबरी मस्जिद ध्वंस को लेकर एक मात्र इस्तीफा

लेकिन सोनिया गाँधी ने बनाया मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री
तुम्हे नहीं अर्जुन सिंह

अपने इसी झुनझुने में मगन रहो चुरहट के राजकुंवर
कि तुम्हे शिक्षा और बच्चों को मुक्त करना है नफ़रतों के जहर से
देते रहो चुनौती राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ
विहिप शिवसेना भाजपा बजरंगियों को

जुटे रहो चाणक्य की तरह काँटों के उन्मूलन में
तुम उस मुल्क की राजनीति में हो जिसमे
हर आदमी औरत के हाथ कमोवेश काले हैं
फिर भी पियो गरल बदनामी का सही आरोप
महत्वाकांक्षी चतुर चालक ठाकुर होने के
फिर तुम्हारे ही लोग तुम्हे दोष दें तुम्हे ने मुसीबतें खडी करने का
ताज़ा अफवाह राष्ट्रपति बनने की कोशिश का
पता नहीं तुम कब सीखोगे
क्या पडी थी तुम्हे नरसिंह राव का विरोध करने की
क्यों बने बागी
मैंने देखा है तुम्हारा वह आत्मनिर्वासन और अकेलापन
देखते नहीं लोग नापसंद करते हैं दरअसल विद्रोहियों को
उन्हें भी जो खुद विरोधियों की मुखालिफत करते हों
क्या अब भी नहीं जानते अपने तज्रिबे से
कि अपने बीच के जिद्दी आदमियों से
अपनों को भी असुविधा हो जाती है
उन्हें व्यापक दुनियादारी से बोलनेवाले
आज्ञाकारी पालतू ही भरोसेमंद लगते हैं किसी भी पाले में हों
जो हर एक के लिए हर मौसम में मुफीद होते हैं
जिनसे कोई काल्पनिक खतरे तक कभी नहीं होते
अपनी त्रासदी पहचानों अर्जुन सिंह
सिर्फ वफादारी काफी नहीं
पूरी तरह से मौन बिछना पड़ता है
तुम कहते हो तुम किसी के आदमी नहीं हो
तभी किसी सिकंदर की सिफारिश पर तुम नहीं रखे गये
कुछ मूल्यों के प्रति तुम्हारे समर्पण से
चौतरफा आतंक पैदा होता है
वक़्त आ चूका है कि तुम पुस्तकों संस्थाओं और देश के
शुद्धिकरण का यह खब्त छोडो
अपनाओं सौम्य सवर्ण हिंदुत्व को
जाने दो यह सामाजिक पुनर्निर्माण का स्वप्न
जिसे द्विजों पिछडों अन्य पिछडों और दुसरे अभागों की
विक्षिप्त परस्पर महत्वाकांक्षी घृणा कभी भी
जलती हुई चीजों और लाशों में बदल देती है
सब लोग राष्ट्रव्यापी रहत की सांस लेंगे
कांग्रेसी सबसे ज्यादा
और क्या पता
कभी मान लो सोनिया जी की किसी अंतरिम विकल्प की तलाश हुई
तो शायद अगली दफा उनकी निगाह पिछले कतार में खडे तुम पर पड़े
वर्ना नमरुदों की इस खुदाई में
तुम्हारी तरह की बंदगी से तुम जैसों का तो भला होने से रहा