ज्ञानोदय मई अंक मे छपी संपादकीय और विजय मोहन सिंह की ८०-९० दशक की कहानी पर टिप्पणी उनके पूर्वाग्रह को प्रकट करती है .जाहिर है वे संकेतो से कुछ खास लेखकों (जैसे उदय प्रकाश ) पर निशाना साध रहे हैं . इस तरह की चीजें किसी भी सार्थक बहस की संभावना को समाप्त कर देती हैं । विजय कुमार का समकालीन कविता पर लेख और उसके बाद की बहस स्पोंसर्ड ही लग रही है . कोई खास नयी चीज इससे निकल कर आयेगी ऐसा नही लगता । फिर भी इस बहस मे विजयजी (अपने तकनीकी कौशल से) ही हावी रहे हैं। हालांकि जून अंक मे किसी लेखक का ये उद्वरण बहुत सही है
चिरैया क जान गईल खवैया को स्वाद नही
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment